व्यक्तित्व की अवधारणा
‘व्यक्तित्व’ (Personality) को लेकर विद्वानों में अनेक मतभेद रहे हैं। ‘व्यक्तित्व’ शब्द लैटिन भाषा के परसोना से बना है, जिसका अर्थ है मुखौटा, नाटकों में जो पात्र थे वे अपने चेहरे पर एक मुखौटा पहनते थे जो नाटक के पात्र की चारित्रिक विशेषताओं के दर्शन कराता था। और नाटकों में वेशभूषा भी पात्रानुकूल ही होती थी। इससे पात्रों के चारित्रिक वैशिष्ट्य का पता चलता है।
व्यक्तित्व के विषय में भारत तथा यूरोप एवं अमेरिका में पृथक अवधारणायें प्रचलित है। इन अवधारणाओं के आधार पर व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाता है।
भारतीय (प्राचीन) अवधारणायें
1. दार्शनिक दृष्टिकोण
दर्शनशास्त्र की अवधारणा यह है कि आत्मज्ञान, आत्मानुभूति (Self knowledge, Self realization) वाला व्यक्ति ही व्यक्तित्व है, अन्य सभी साधारण जन है। और आत्मज्ञान की अधिकता ही व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। ऐसा व्यक्ति ही पूर्णता का आदर्श है। और आत्मज्ञान से पूरित है।

दार्शनिक दृष्टिकोण वैदिक युग से प्रचलित है। पाप-पुण्य, शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से सम्बन्धित तत्त्वों का समंजन ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। जैसा की एक वेद मंत्र में कहा गया है- “हे परमात्मन, मेरे सारे अंग-वाणी, नेत्र, श्रोत्र आदि सभी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राण समूह, शारीरिक और मानसिक शक्ति तथा ओज-सब पुष्टि एवं वृद्धि को प्राप्त हो।”
सांख्य दर्शन आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक के भेद से दुःख तीन प्रकार के हैं। शारीरिक दुख का कारण वात, पित्त, कफ की विषमता के कारण रोग एवं दुःख देने वाले विषयों की प्राप्ति है। और मानस दुःख का साधन काम, क्रोध, लोभ, मोह, विषाद आदि है।
न्याय दर्शन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, आन्विक्षी, वार्ता तथा दण्ड नीति व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। वैशेषिक दर्शन द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और पंचम तत्व पर बल देते हैं। वैशेषिक सिद्धान्त प्रतिनियत अवस्था से ही सुखी, दुःखी, उच्च वंशीय, नीच वंशीय, विद्वान तथा मूर्ख होते हैं।
मीमांसा दर्शन के अनुसार- आत्मज्ञानपूर्वक वैदिक कर्मों के अनुष्ठान से धर्मा धर्म के विनाश के लिये देह. इन्द्रिय आदि का आत्यन्तिक निराकरण ही मोक्ष है। शंकराचार्य ने शिक्षा, कला, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और व्याकरण की शिक्षा से युक्त व्यक्ति है वही सर्वोत्तम व्यक्तित्व है।Read more…