भारत में भक्ति आन्दोलन
भक्ति आन्दोलन सुदूर दक्षिण में शंकराचार्य के निर्गुण अद्वैतवाद से आरम्भ हुआ था लेकिन आल्वार भक्तों ने सगुण की उपासना का भक्तिपूर्ण मार्ग स्थापित किया था। उनके भक्ति मार्ग को दार्शनिक आधार प्रदान करने कार्य रामानुजाचार्य, माधवाचार्य तथा निम्बार्कचार्य ने किया था। यह भक्ति आन्दोलन एक धार्मिक आन्दोलन था और निर्गुण के स्थान पर सगुण तथा ज्ञान के स्थान पर भक्ति को मोक्ष पाने का सरलतम मार्ग मानता था।
तथा उत्तर भारत में इस्लाम धर्म के आने से हिन्दू समाज के समक्ष धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक संकट उत्पन्न हो गया था। अतः उत्तर भारत का भक्ति आन्दोलन अपने स्वरूप तथा उद्देश्य में दक्षिण भारत के भक्ति आन्दोलन से भिन्न था।
डॉ. ग्रियर्सन लिखते हैं, “हम अपने को ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते हैं जो उन सब आन्दोलनों से कहीं व्यापक और विशाल है जिन्हें भारतवर्ष ने कभी देखा है। इस युग में धर्म ज्ञान का विषय नहीं वरन् भावावेश का विषय हो गया था। बिजली की चमक के समान समस्त पुराने धार्मिक अंधकार के ऊपर एक नयी बात दिखाई दी। कोई हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आयी।”
मुस्लिम आक्रान्ताओं के धार्मिक उत्पीड़न के कारण हिन्दू भक्त और संत एकान्त में भगवत-भजन में लीन हो गये। डॉ. गियर्सन का यह कहना ठीक है कि इस आन्दोलन का विषय ज्ञान नहीं था लेकिन यह बिजली के समान अचानक उत्पन्न नहीं हुआ था। भक्ति आन्दोलन शताब्दियों से चल रहा था। उत्तर भारत की विषम परिस्थितियों में उसका स्वरूप सुरक्षात्मक था।
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भक्ति का उद्भव
भक्ति आन्दोलन के उद्भव के बारे में पाश्चात्य विद्वान वेबर का मत है कि मोक्ष के लिए भक्ति का सिद्धान्त ईसाई धर्म से ग्रहण किया गया। ग्रियर्सन ने भी इसी प्रकार विचार व्यक्त किया था। इस मत को कोई विद्वान स्वोकार नहीं करता है क्योंकि भारतीय संतों तथा ईसाई Read More..